कुछ पंक्तियाँ...

मैं तुम्हें छूकर ज़रा सा छेड़ देता हूँ
और गीली पंखुडी से ओस झडती है।
तुम कोई झील हो, मैं एक नौका
इस तरह की कल्पना मन में उभरती है।

माथे पे रखकर हाथ बहुत सोचते हो तुम;
खुदा कसम हमें बताओ क्या है माज़रा
लम्बी सुरंग सी है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ, वहां है क्या कोई सिरा।

अफवाह है या सच - ये कोई नही बोला
पर मैंने भी सुना है जाएगा तेरा डोला।
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे,
मेरे बाद तुम्हें मेरी याद दिलाने आयेंगे।

[ये पंक्तियाँ मैंने कॉलेज में लिखे थे... पता नही कितनी अच्छी हैं पर मेरे जीवन का हिस्सा हैं ये]

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1 Comments:

Anonymous said...

Why you always write in the end "This poem is rustic"
or
"i know its pathetic"
and what you have written in this post.

let me tell you, you write well...


Shilpa